राख में बुझती हुई चिंगारी सोचती है
कोई फूँक दे तो धधक के जल जाऊं
या धीरे धीरे सुलगते हुए राख बन जाऊं
कुछ देर में भी जली थी साथियों के साथ
सब छोड़ गए उसे बस उनके अवशेष है
राख में बुझती हुई चिंगारी सोचती है
गर्म आहें मेरी कुछ और बाकी है
फिर में भी मिल जाउंगी इस ढेर में
क्या मकसद था मेरे जलने का
राख में बुझती हुई चिंगारी सोचती है
अग्न को समेटे रहना चाहती हूँ अपने अन्दर
की त्याग दूं एकत्रित आकांशा के बन्धनों को
राख में बुझती हुई चिंगारी सोचती है
अंत के गहराइयों में उतरते हुए
अपने सुनहरे पलों को रोशन करते हुए
राख में बुझती हुई चिंगारी सोचती है
In : Poetry
Tags:
chingari
raakh
div id="disqus_thread">